‘लोकसत्ता-आयडिया एक्सचेंज’ में सरसंघचालक जी से वार्तालाप

Rashtriya Swayamsevak Sangh    22-Oct-2012
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सरसंघचालक का संघावलोकन

‘लोकसत्ता-आयडिया एक्सचेंज’ में सरसंघचालक मोहन जी भागवत ने संघ के बारे में मूलभूत जानकारी संबंधी एक निवेदन किया उसका सारांश - 

संघसंस्थापक डॉ। हेडगेवार जी के जीवनकाल में देश का उत्थान यहीं एकमात्र लक्ष्य था। देश के हित में होने वाले हर आंदोलन में वे सक्रिय सहभागी होते थे। अनेक जिम्मेदारियॉं निभाने पर उनके ध्यान में आया कि, हमारे देश पर बार-बार कोई आक्रमण करता है और फिर हम जागते है, संकट का निवारण होता है और पुन: आक्रमण होता है। इस दुष्टचक्र से बाहर निकलने के लिए हमारे देश के दोष हटाकर समाज स्वस्थ और संगठित करने की आवश्यकता है। इसके लिए अनेक वर्ष प्रयोग करने के बाद उन्होंने १९२५ की विजयादशमी को, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस नाम से एक अभिनव तंत्र शुरू किया। करीब १५ वर्ष इस तंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव लेकर, युवकों से चर्चा कर, दिसंबर १९३९ में उन्होंने संघ की कार्यपद्धति निश्चिवत की। यह काम किसी के भी विरुद्ध नहीं; बल्कि सब कामों के लिए साह्यभूत सिद्ध होगा, इस प्रकार का है। इस काम से डॉक्टर तीन मूलभूत निकषों पर पहुँचे। पहला मुद्दा नेता, सरकार, व्यवस्था आदि पर देश का भाग्य निर्भर नहीं होता। वह सर्वसामान्य समाज के संगठितता और गुणवत्ता पर निर्भर होता है। दूसरी बात, संगठित होने के लिए, प्रगति करने के लिए, समाज को ‘स्व’के आधार पर एकत्र आना आवश्यक है और तीसरा मुद्दा, सामान्य समाज में गुणवत्ता निर्माण करने के लिए केवल बुद्धि से काम नहीं चलता, वह भावना भी समाज के हृदय में उतारनी पड़ती है, समाज रूपी शरीर को उसकी आदत लगनी चाहिए। इन तीन मुद्दों के आधार पर संघ का काम आज तक चल रहा है। मजे की बात यह है कि, संघ के इस मूल काम को छोड़कर संघ के बारे में समाज को बहुत कुछ पता है। इसका कारण यह है कि, गत ८७ वर्ष में असंख्य कार्यकर्ता निर्माण हुए है। कुछ स्वयंसेवक उनकी रुची के अनुसार कोई अन्य क्षेत्र चुनकर उसमें सक्रिय होते है। आज संघ के विविध कामों के बारे में कहा जाता है कि, वे काम संघ की योजना से नहीं, तो स्वयंसेवकों की योजना से शुरु हुए हैं। आवश्यकतानुसार और उस काम के महत्तानुसार संघ उन कामों में मदद करता है। लेकिन वे काम स्वायत्त हैं और निर्णय लेने के लिए वे स्वयंसेवक स्वतंत्र है। वे संघ से मदद मांग सकते है, सलाह मांग सकते है। उस प्रकार की मदद और सलाह कोई भी संघ से मांग सकता है। लेकिन ये काम करने वाले स्वयंसेवक होने के कारण उन्हें संघ से सहायता मांगने में संकोच नहीं होता। संघ का उस काम से केवल इतना ही संबंध है। संघ का मुख्य काम मनुष्य-निर्माण और अच्छे लोगों के सामाजिक अभिसरण से बस्तियों में अच्छा वातावरण निर्माण करना है।         

गिरीश कुबेर : आज के आधुनिक काल में संघ की कालसांदर्भिता कितनी है?

मोहन भागवत : अच्छी बातों की आवश्यकता सदैव रहती है। संगठित एवं गुणसंपन्न समाज हर समय देश अच्छा होने की पूर्व शर्त है और आज के समय में तो अधिक सुसंगत है। अनेकों को यह महसूस होता है। संघ का काम सार्वकालिक, नित्यावश्यक होने के कारण उसकी सांदर्भिकता का प्रश्नह ही मन में निर्माण नहीं होता। जब समाज की व्यवस्था सही थी तब घरों में होने वाले संस्कार और समाज में के वातावरण से मनुष्य पर अपने आप संस्कार होते थे। आज अमेरिका में उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं है। उन्हें उसकी आवश्यकता नहीं। कारण मनुष्य-निर्माण की उनकी संस्थाएँ सही सलामत है। उनकी जैसी आवश्यकता है वैसा मनुष्य उनमें निर्माण होता है। लेकिन हमारे यहॉं बीच के अशांत समय में ऐसी संस्थाएँ उद्ध्वस्त हुई। पुरानी थाती के अर्थ विस्मृत हुए, उसमें विकृति आई। अच्छा क्या है यह बताने वाला कोई नहीं रहा। घरों और शिक्षा के संस्कारों में भी कमी अनुभव होने लगी। आज घर छोड़ दे तो संस्कार का सर्वत्र अभाव ही दिखता है। इसलिए संघ जैसे संगठन की आवश्यकता है। हमें ‘समाज में संगठन’ नहीं बनाना; तो ‘समाज का संगठन’ बनाना है। संघ के नाम से कुछ नहीं करना वरन् समाज के नाम से सब कुछ हो, ऐसा हमारा कहना है। 


गिरीश कुबेर : देश में वामपंथीयों ने खुलकर सत्ताकारण किया। लेकिन संघ ने ऐसा नहीं किया। ऐसा छिपाकर रखने का क्या कारण है और उससे कुछ हानि हुई है? 

मोहन भागवत : संघ कुछ भी छिपाकर नहीं रखता। संघ को राजनीति नहीं करनी। क्योंकि आज की प्रचलित राजनीति मे बदलाव समाज ही ला सकता है; संघ नही। संसद के सुवर्णमहोत्सव के अवसर पर हुए भाषणों में शरद यादव का भाषण हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘राजनीतिज्ञों के कारण भ्रष्टाचार होता है यह बिल्कुल सच है। हमें भी भ्रष्टाचार नहीं चाहिए। लेकिन जनता सोचती है कि प्रचार के लिए कॉंग्रेस की पॉंच जीप गाडीयॉं घूमती है, मतलब कॉंग्रेस का जोर है, उन्हें वोट दे। फिर हमें भी चार जीप गाडीयों की व्यवस्था करनी पड़ती है। इसके लिए आवश्यक पैसा हमें गरीब लोग नहीं देते, धनवान देते है। वे उसकी वसुली भी करते है। इस दुष्टचक्र पर इस संसद में उपाय नहीं मिलेगा।’’

जब तक समाज की वृत्ति नहीं बदलती तब तक इस पर कोई उपाय नहीं। लेकिन आज की राजनीति समाज का खंडित स्वरूप में ही विचार करती है। मत (वोट) चाहिए तो समाज खंडित होना और उन टुकड़ों में संघर्ष आवश्यक है। तब ही चुनकर आने की संभावना होती है। हम ऐसी राजनीति से समाज का संगठन कैसे करेगे! किसी स्वयंसेवक को राजनीति में जाना हो तो वह जा सकता है। लेकिन फिर वह संघ की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। कोई जिम्मेदारी संभालने वाले को जाना होगा तो हम कहते है जिम्मेदारी छोड़ो, दो वर्ष कुछ भी मत करो और फिर जहॉं चाहे जाओ! 

राजनीति जीवन का एक अविभाज्य भाग है। वह अच्छा हो ऐसा चाहने वाले उधर जाते है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ऐसी ही भावना से एक पार्टी बनाई थी। उसके लिए उन्होंने कार्यकर्ता मांगे। तब संघ की कार्यकारिणी ने विचार कर कुछ कार्यकर्ता दिए। सब अच्छे कामों के लिए संघ कार्यकर्ता देता है। और भी किसी ने मांगे तो देंगे। मैं प्रचारक था उस समय कॉंग्रेस को भी तात्कालिक मदद की है। यह हम छिपाकर नहीं रखते। संघ राजनीति में नहीं है। संघ के लिए सब पार्टिंयॉं समान है। सब पार्टिंयॉं हमारी है और एक भी पार्टी हमारी नहीं। हमारे स्वयंसेवक भाजपा के समान अन्य पार्टियों में भी है। ‘स्वयंसेवक अपने विवेक के अनुसार चाहे जिसका काम करे’ ऐसी छूट है। हम जो राष्ट्रीय विषय मानते हैं, वैसी विचारधारा रखने वाली कोई पार्टी सत्ता में आने की संभावना है और अगर वह सत्ता में नहीं आई तो बहुत बड़ा नुकसान होगा, ऐसी स्थिति होगी और हमारी ताकत होगी, तो स्वयंसेवकों को हम उस पार्टी को मदद करने के लिए कहते है। वह मदद भी उस पार्टी को नहीं तो उस विषय को, मुद्दे को करते है। और आज तक इस प्रकार हमने केवल चार बार मदद की है। आपत्काल में सर्वप्रथम ऐसी मदद की, उसका लाभ सब पार्टियों को हुआ। फिर उसका लाभ प्रथम भाजपा को हुआ तो अन्य समय एनडीए को हुआ। लेकिन यह सब हम खुलकर करते है। चोरी-छिपे राजनीति नहीं करते। कारण हमें राजनीति में नहीं आना है। 

मुकुंद संगोराम : सब समाज को मदद करेगे ऐसा कहते समय समाज में हिंदू व्यतिरिक्त अन्य घटकों का आप कैसे विचार करते है? मुस्लिम हमारे शत्रु है, ऐसी धारणा  संघ ने निर्माण की ऐसा कहा जाता है, आप क्या कहते है?

मोहन भागवत : समाज की समझ सुधारने की आवश्यकता है। हम जिस हिंदू शब्द का प्रयोग करते है उसका प्रचलित अर्थ ‘ईसाई, मुस्लीम के समान हिंदू’ इस प्रकार से लिया जाता है। हम इस अर्थ से हिंदू नहीं कहते। हमारे देश की पहचान, हमारी राष्ट्रीयता और मुस्लीम, ईसाईयों के साथ हमें जोड़ने वाला एकता का सूत्र, इस अर्थ से हम हिंदू शब्द का प्रयोग करते है। एकता होने के बाद समाज का पुरुषार्थ प्रकट होता है। भारत में कोई भी ‘अहिंदू’ नहीं है। जो है वे सब भारतमाता के पुत्र इस अर्थ से हिंदू ही है। यहॉं कोई भी अरब मुस्लीम या यूरोपीय ईसाई नहीं। एक बार सांसदों से चर्चा करते समय ‘सच्चर समिति को हमारा विरोध क्यों?’ ऐसा प्रश्नै आया। लेकिन प्रश्नो पूछने वाले ने ही उसका उत्तर दिया। उन्होंने कहा, ‘‘यहॉं के मुस्लीम मूल हिंदू ही है। पहले उन्हें भजन गाने की आदत थी अब वे कव्वाली गाते है। मूर्ति पूजा की आदत थी, अब कब्र, मजार की पूजा करते है। अन्यत्र कहीं भी इस्लाम में इन बातों की अनुमति नहीं, केवल भारत में ही यह सब होता है। अर्थात् आज का भारत नहीं तो अफगाणिस्थान से ब्रह्मदेश तक फैला भारत हमें अभिप्रेत है। यदि यह सब उन्हें समझ आया तो झगड़ा ही समाप्त होगा। लेकिन इसके लिए शिक्षा की आवश्यकता है।’’ मैंने कहा, ‘‘यह जो आपने बताया वह सब हमें १९२५ से पता है। आप यह हमें जो बता रहे हो क्या वह आपके समाज को मान्य है? आपका कहा जिस दिन उनको मान्य होगा उस दिन हम हमारा विरोध पीछे लेगे।’’हमारी हिंदुत्व की कल्पना सांप्रदायिक नहीं। संघ स्वयंसेवकों ने देश के बाहर हिंदू संगठन शुरू किया उसका नाम ‘हिंदू स्वयंसेवक संघ’ है। हमारा नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। कारण वह अपनी राष्ट्रीयता है। जिन्हें ‘भारतीय’ कहा जाता है ऐसी अनेक अधिकतर बातें रूढ अर्थ में हिंदू है। उदाहरण : सरकारी बोधवाक्य, गाड़ियों के नाम आदि। यह सब स्वाभाविक है। येशू ख्रिस्त भारत में भी वंदनीय है, उन्हें विरोध करना हिंदुत्व में नहीं बैठता। लेकिन वे भारतीय मिट्टी के नहीं यह वस्तुस्थिति हम बदल नहीं सकते। हम ईसाई होने के बावजूद हमारे पूर्वज समान है। हम जिसे अखंड भारत कहते है, या भौगोलिक दृष्टि से ‘इंडो-इरानीयन प्लेट’ कहे जाने वाले क्षेत्र के लोगों के डीएनए समान है। इन्हें हम हिंदुत्व के लक्षण मानते है। केवल कुछ लोग यह भूल गए है कि वे हिंदू है। कुछ लोगों को पता है लेकिन वे स्वार्थ के कारण बोलते नहीं। कुछ को पता है, और वे बोलते भी है। लेकिन उन्हें उसमें कुछ विशेष नहीं लगता। तो कुछ को हिंदू होने का अभिमान होता है। ऐसे चार प्रकार के हिंदू केवल भारत में ही रहते है। हम सब को बुलाते है। जो आते है उन सब को संघ में प्रवेश देते है। जहॉं-जहॉं मनुष्य की बस्ती है वहॉं तक संघ का काम पहुँचाने का हमारा प्रयास है। अमीर-गरीब सब आए ऐसा प्रयास करते है। संघ में आने वाला हमारा, लेकिन नहीं आने वाले पराए नहीं, उन्हें कल संघ में लाना है। संघ के बारें में गलतफहमियॉं संघ के प्रत्यक्ष दर्शन से ही दूर होती है; और वह योग्य ही है। 

प्रशांत दीक्षित : क्या आज का युवक संघ का ‘दर्शन’ लेता है? संघ के शाखाओं की संख्या कम हो रही है, ऐसा चित्र है।

मोहन भागवत : हमारे प्रतिनिधि सभा के प्रकाशित छायाचित्र पर नजर डाले तो काले सिर कितने और सफेद सिर कितने यह सहज ध्यान में आएगा और आपको जो चित्र दिखता है वह वैसा नहीं है, यह ध्यान में आएगा। संघ में शारीरिक श्रम इतने होते है कि साठ से अधिक आयु के स्वयंसेवकों के लिए वह संभव नहीं। साठ वर्ष की आयु के बाद भी काम करने वाले मेरे जैसे अधिक से अधिक २०० स्वयंसेवक संघ में है। औरो से यह काम होगा ही नहीं। बचपन से संघ में आने वाले वृद्ध होने के बाद भी शाखा में आते ही रहेगे। उनकी भी शाखा लगती है। और उनके ही चित्र देखे तो गलतफहमी होगी। हमारे प्राथमिक संघ शिक्षा वर्ग होते है। दो-तीन वर्ष संघ में आने वालों में से चुने हुए स्वयंसेवकों को इस वर्ग में प्रवेश दिया जाता है। प्रति वर्ष ऐसे ६० हजार से १ लाख स्वयंसेवक इस वर्ग में आते है। उनकी औसत आयु ३० वर्ष होती है और उनमें भी ९० प्रतिशत २० से २५ आयु समूह के होते है। आय। टी। क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर स्वयंसेवक युवा ही है। उनमें से हमें प्रचारक भी मिले है। इंटरनेट पर सर्फिंग करनेवालों में ७५ से ८० प्रतिशत हमारे स्वयंसेवक है। महाविद्यालय और विश्वेविद्यालयों में सर्वत्र हमारा स्वागत होता है। हम देशभक्ति और सेवा कार्य का आवाहन करते है इसलिए सर्वत्र हमें उत्तम प्रतिसाद मिलता है। 

मधु कांबळे : चातुवर्ण्य व्यवस्था कायम रखकर हिंदूओं का संगठन किया जा सकेगा?मोहन भागवत : यदि आज कोई जाति व्यवस्था अथवा चातुवर्ण्य मानता है तो वह व्यवस्था नहीं अव्यवस्था है। हजारों वर्ष पूर्व की यह व्यवस्था आज लागू करना संघ पूर्णत: अमान्य करता है। समरस, समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज का संघ पक्षधर है। इस दृष्टि से अनुकूल नीतियों को हमारा समर्थन है और भविष्य में भी रहेगा। जाति हम नहीं मानते। लेकिन वह जाती नहीं, अनेकों के प्रयत्न करने के बाद भी। इसका कारण यह है कि वह मन में है। हम मन पर उपचार करते है। एक-दूसरे की जाति ही मत पूछों, हम सब हिंदू है, ऐसा आवाहन संघ करता है। जीवन का दृष्टिकोण बदलने के लिए इसका बहुत अच्छा प्रभाव होता है, ऐसा हमारा अनुभव है। आंतरजातीय विवाह करने वालों में संघ के विचारों का प्रभाव होने वाले ही बहुसंख्य होगे ऐसा मुझे विश्वारस है। हमारी तो यह भावना है कि, विषमता हटा देना मतलब हिंदू संगठन ही है। 

मधु कांबळे : आरक्षण के बारे में संघ की क्या भूमिका है?मोहन भागवत : जहॉं सामाजिक भेदभाव है वहॉं आरक्षण की आवश्यकता है, यह संघ की भूमिका है। ऐसा आरक्षण देकर आरक्षण की आवश्यकता समाप्त करेंगे, इस अपेक्षा से संविधान निर्माताओं ने इसके लिए १० वर्ष की मर्यादा रखी थी। विषमता मिटाना यह आरक्षण का उद्दिष्ट होने के कारण विषमता मिटने तक आरक्षण शुरु रखना बिल्कुल स्वाभाविक है। लेकिन हमने इस हथियार का राजनीति के लिए, वोट बटोरने के लिए दुरुपयोग किया। इस कारण संघ की ऐसी सूचना है कि, इस पर विचार करने के लिए एक गैर राजनैतिक समिति गठित करे। उसमें शिक्षा-तज्ञ, समाज-तज्ञ, सरकार, प्रशासन, राजनीतिक पार्टींयों के प्रतिनिधि हो। सामाजिक भेदभाव के आधार पर किन्हें आरक्षण की आवश्यकता है, यह वे निश्चिरत करे। आगामी ३० वर्षों में आरक्षण की आवश्यकता नहीं रहेगी ऐसी स्थिति निर्माण करने का उद्दिष्ट रखें। आरक्षण लागू करना, स्वीकार न करने वालों को दंड देना आदि अधिकार इस समिति के पास हो। सब को एक बार बराबरी की रेखा पर लाकर यह उपक्रम समाप्त करें। इसके बाद जो पिछड़े हैं उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण दे। सर्वोच्च न्यायालय के दो फैसलों में भी इसी आशय की सूचनाएँ है। हमारे समाज में पहले जो भेदभाव हुआ था; वह नष्ट करने के लिए आरक्षण के हथियार का विवेक से उपयोग हो, ऐसी संघ की भूमिका है। 

रेश्मा शिवडेकर : आरक्षण जाति के आधार पर हो या धर्म के? 

मोहन भागवत : जहॉं सामाजिक भेदभाव हुआ वहॉं आरक्षण होना चाहिए। दुनिया भर में आरक्षण आर्थिक दुर्बलों को दिया जाता है। हमारे यहॉं जाति के आधार पर भेदभाव होने का इतिहास होने के कारण उस आधार पर आरक्षण देना पड़ता है। हमारे यहॉं धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं हुआ। सब धर्म के राज्यकर्ता थे, प्रतिष्ठित थे। आज भी, किसी भी धर्म की व्यक्ति राष्ट्रपति हो सकती है। इस कारण धर्म के आधार पर आरक्षण न रहे। सब गरीबों के लिए आरक्षण हो। 

उमाकांत देशपांडे : क्या केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर विकास हो सकेगा? 

मोहन भागवत : सब समाज एक कतार में होगा, केवल तब ही आर्थिक आरक्षण प्रभावी सिद्ध होगा। लेकिन सामाजिक भेदभाव के कारण स्पर्धा बराबरी की नहीं होती। इसके लिए प्रथम उस आधार पर आरक्षण हो। आरक्षण के कारण समाज का एक वर्ग आहत होता है। लेकिन हम उन्हे बताते है कि, केवल ५० वर्ष आरक्षण होने के कारण आपको कष्ट होता है। वे लोग तो दो हजार वर्ष वंचित रहे, यह समझ ले। आज की पिढ़ी समतावादी है। उसे कोई भेदभाव मान्य नहीं। सबको समान स्तर पर लाने के लिए आरक्षण है, ऐसा इस पिढ़ी को विश्वानस हुआ तो वह विरोध नहीं करेगी। समाज-स्वास्थ्य का विषय विवाद का विषय न बने। 

दिनेश गुणे : आरक्षण के लाभ सदैव मिलते रहे, ऐसा सोचनेवाला वर्ग भी होता है!

मोहन भागवत : आरक्षण नहीं था तब भी एक वर्ग को करीब दो हजार वर्ष लाभ मिलता ही रहा है। संविधान केनिर्माताओं ने वह कठोरता से रोका। उसी प्रकार अब लाभ लेने वालों को भी कठोरता से बताना होगा। लेकिन उसके लिए प्रामाणिकता और संवेदनशीलता की आवश्यकता है। संघ के लोगों को क्या महसूस होगा इसकी चिंता किए बिना संघ देशहित की भूमिका लेता है। बालासाहब देवरस ने ‘यह पीड़ा समझ लो’ ऐसा आवाहन स्वयंसेवकों को किया था। 

वैदेही ठकार : देश में १९५० से ५५ के समय केवल लक्षणीय सामाजिक सुधारों की लहर आई थी। आज फिर ऐसे सुधारों की आवश्यकता है। विशेष कर महिलाओं के बारे में। सब धर्म की महिलाओं के लिए क्या संघ की कोई योजना है?

मोहन भागवत : हमारी कार्यपद्धति लहर उत्पन्न करने वाला प्रभाव निर्माण करने की है। महिलाओं का विचार भी संघ ने शुरू किया है। जानकारी एकत्र हो रही है। उसके लिए कार्यकर्ता/महिला कार्यकर्ता तैयार हो रहे है। कोई भी लहर, आंदोलन के रूप में आती है। लेकिन आंदोलन में दो पक्ष (मतलब शत्रु) होते है। उसमें कटुता निर्माण होती है। यह कटुता टले इसलिए संघ हमेशा मानसिकता में बदलाव आये, इस प्रयास में रहता है। धारा (प्रवाह) निर्माण कर सके ऐसी मानसिकता संघ उत्पन्न करता है। महिलाओं के लिए काम करना चाहिए यह हमें मान्य है और हमारी पद्धति से हम वह जरूर करेंगे।

दिनेश गुणे : हाल ही में विहिंप ने एक पत्रक निकाला है। उसमें ‘अमरनाथ यात्रा रोकने का प्रयास हुआ तो एक भी हज यात्री को हिंदुस्थान से नहीं जाने देंगे’ ऐसा इशारा उसमें है। ऐसे पत्रक निकले तो समरसता होगी? 

मोहन भागवत : इतनी कड़ी भाषा में यह पत्रक क्यों निकाला, किसने निकाला इसकी हम जॉंच करेगे। लेकिन यह हमारी भूमिका नहीं है। कई बार तात्कालिक परिस्थिति के दबाव में ऐसी भाषा का प्रयोग होने की संभावना है। लेकिन उसे गले लगाने का कारण नहीं। रामजन्मभूमि मामले का फैसला आया तब हमने एक पत्रक निकाला। यह फैसला किसी के हार-जित का मुद्दा नहीं। हम सब एक समाज के घटक है। एक विवाद का फैसला अब निकला है। वह हम सब एक होकर मान्य करे, ऐसी हमारी भूमिका थी। सब संगठनों ने साथ बैठकर, विचार कर वह पत्रक निकाला था। उसमें विश्वऐ हिंदू परिषद भी शामिल थी। उपरोक्त पत्रक जैसी घटनाएँ होते रहती है। लेकिन घटना को कोई अर्थ नहीं। सही प्रवाह क्या है वह महत्त्वपूर्ण है। 

गिरीश कुबेर : संघ से संबंधित कुछ संस्थाएँ ऐसी अतिरेकी भूमिका लेती है। इस कारण संघ भी बदनाम होता है, क्या आपको नहीं लगता कि संघ उनके ऊपर नियंत्रण रखने में असफल सिद्ध हुआ है?

मोहन भागवत : संघ की नियंत्रण रखने की पद्धति भिन्न है। कोई काम करने की विशिष्ट आदत लगी हो, तो वह बुद्धि से बताने से नहीं छूटती। तर्क से समझाने से भी नहीं छूटती। उनकी आदत छुड़ानी पड़ती है। इसके लिए उन्हें प्रत्यक्ष काम से लगाया जाता है। काम करना शुरू करने पर, उसमें की दिक्कतें ध्यान में आने के बाद अपने आप यह आदत छूट जाती है। यह हमारी पद्धति है। सरसंघचालक ने कहा इसलिए कोई एखाद बार मान भी लेगा, लेकिन इससे परिवर्तन नहीं होगा। परिवर्तन होने के लिए प्रत्यक्ष काम से ही उसका अहसास हो यह उत्तम मार्ग है।

संदीप आचार्य : काशी और मथुरा के बारे में आपकी क्या भूमिका है?

मोहन भागवत : मथुरा के बारे में कोई भी अपील में नहीं जा सकता, इस प्रकार का फैसला न्यायालय ने पहले ही दिया है। उस पर अमल होना चाहिए। वाराणसी में भी विश्वअनाथ का जो नया मंदिर है उसी परिसर में ‘वह’ स्थान है। वहॉं भी अधिक कुछ नहीं किया जा सकता। लेकिन मूलत: प्रथम अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने के बाद ही इन दो प्रश्नों  का विचार होगा। 

गिरीश कुबेर : संघ का आर्थिक विचार क्या है?

मोहन भागवत : किसी भी देश का सर्वांगीण विकास उस देश की प्रकृति, देश के लोगों की आकांक्षा, देश के लोगों की पृष्ठभूमि आदि का विचार करके होना चाहिए। संसार की सब मॉडेल्स देखनी चाहिए। जो अपनाने लायक है, वह ले। विकास का उद्देश्य मनुष्य स्वतंत्र और स्वावलंबी बने यही होता है। वह स्वतंत्र, स्वावलंबी होगा तो मुक्त होगा। मतलब स्वावलंबन चाहिए। स्वावलंबन का मतलब है जो मैं घर में बना सकता हूँ वह बाजार से नहीं लाऊँगा। जो गॉंव के बाजार में मिलता है वह बाहर जाकर नहीं लाऊँगा। जो देश में मिलता है वह विदेश से नहीं लाऊँगा। जो देश में मिलता नहीं, और बनाया भी नहीं जा सकता लेकिन जीवनावश्यक है वह बाहर से लूँगा; लेकिन मेरी शर्तों पर। व्यापार में दोनों ओर से शर्ते होती हैं; लेकिन मैं मेरे लाभ की शर्तों पर ही लूँगा। इस पद्धति को हम स्वदेशी कहते है। यह स्वदेशी की भावना प्रकट होते समय ‘लाइफबॉय का उपयोग न करे’ इस स्वरूप में प्रकट होती है। ज्ञान, तकनीक सबसे ले, अपने देश में उसका उपयोग करे। हर देश का अपना ‘स्व’ होता है। चीन, रूस, अमेरिका महासत्ता बने गये, उससे दुनिया का क्या भला हुआ है? हम, हमारी प्रकृति के अनुसार, आवश्यकता के आधार पर हमारा उद्दिष्ट निश्चियत करेंगे। इस प्रकार मुक्त होकर ‘स्व’के आधार पर रचना आवश्यक है। इतना बड़ा देश सही तरीके से चलने और भ्रष्टाचार मुक्त रहने के लिए अर्थनीति विकेन्द्रित चाहिए। वह भी कम से कम ऊर्जा खपत वाली और पर्यावरण को कम से कम हानि पहुँचाने वाली होनी चाहिए। अधिक रोजगार देने वाली, स्वावलंबी बनाने वाली होनी चाहिए। हमारा देश केवल ग्राहक नहीं बने, तो वह उत्पादक और विक्रेता भी होना चाहिए। इस दृष्टि से स्वकीय व्यापार को प्रोत्साहन और सुरक्षा देने वाली तथा आंतरराष्ट्रीय व्यापार में हमारे अनुकूल निर्णय लेना संभव होने वाली अर्थनीति होनी चाहिए। फिलहाल, अनेक क्षेत्रों में क्षमता और निपुण होने के बावजूद हम उत्पादन नहीं, केवल असेंब्लिंग कर रहे है। मूलगामी संशोधन को उत्तेजन नहीं मिलता। सब बिगड़ा है ऐसा नहीं; लेकिन बहुत ठीक भी नहीं चल रहा। 

गिरीश कुबेर : भारतीय कंपनिया कारोबार के लिए दुनियाभर में जा रही है। ऐसे में ‘गोबर से बना साबुन’ जैसा स्वदेशी का नारा देना, क्या विरोधाभास नहीं है?

मोहन भागवत : स्वदेशी की कल्पना यह नहीं है। दुनिया एक-दूसरे के समीप आ गई है, आंतरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ा है, उसमें लेन-देन रहता ही है। लेकिन यह करते समय, जनता को बलि चढाकर नहीं होना चाहिए। ज्ञान का लेन-देन अवश्य होना चाहिए। लेकिन अपना उद्योग बंद करना किसी भी देश के हित में नहीं होगा। 

प्रशांत दीक्षित : बाजपेयी सरकार की आर्थिक नीति संघ को मान्य थी?

मोहन भागवत : उस समय जो मान्य नहीं था वह संघ ने और स्वदेशी जागरण मंच ने स्पष्ट किया था। मूल बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद, आज तक आर्थिक नीति के बारे में एकसाथ बैठकर विचार हुआ ही नहीं। 

सुहास गांगल : एन्रॉन प्रकल्प को संघ ने कड़ा विरोध किया था। लेकिन भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार आने के बाद सहसा संघ ने आंदोलन पीछे लिया। ऐसा क्यों? 

मोहन भागवत : उस समय मैं नहीं था। इस कारण इसका उत्तर मैं नहीं दूँगा। लेकिन एक निश्चिात है। जिस तत्त्व के लिए हमने एन्रॉन को विरोध किया, उसी तत्त्व के लिए फिर विरोध करना पड़ा तो हम करेंगे! उस समय जो कुछ हुआ, वह क्यों हुआ उसके तह में जाना होगा, तो मुझे प्रथम जानकारी लेनी होगी। कुछ तो हुआ था यह मुझे पता है। उससे अनेक लोग नाराज भी हुए थे। लेकिन अंततोगत्वा समग्र राष्ट्रजीवन मतलब एक घटना तो नहीं! 

सुहास गांगल : मतलब जहां भाजपा की सरकार होगी वहां संघ को आंदोलन पीछे लेना पडता है?            

मोहन भागवत : नहीं, ऐसा कहीं भी नहीं होता। भाजपा के नेतृत्व में जहॉं सरकार है वहॉं स्वयंसेवकों ने अनेक आंदोलन किए हैं।

पी। वैद्यनाथ अय्यर : संघ हिंदू दर्शन बताता है। लेकिन महाराष्ट्र में ही कुछ लोग अन्य प्रान्त के लोगों को ‘घूसपैठी’ करार देते है। क्या आपको नहीं लगता कि यह संकुचितता दरार पैदा करने वाली है?

मोहन भागवत : संकुचित विचार हमेशा फूट डालने का काम करता है। हिंदुत्व की अपेक्षा है कि, आप खुद को विश्व , चराचर तक विस्तारित करें। ‘वसुधैव कुटुंबकम्|’। जो केवल स्वयं का ही विचार करते हैं वे पशु माने जाते है। परंतु जो संपूर्ण विश्वा का, सजीव और निर्जीव का भी विचार करते हैं उन्हें देव माना जाता है। इस कारण भाषा, प्रान्त, जाति, आपस का बैर आदि बातें और हिंदुत्व एकत्र नहीं रह सकती। 

पी। वैद्यनाथ अय्यर : लेकिन इस प्रकार की जाने वाली राजनीति को क्या कहें?

मोहन भागवत : हमारा कहना है, ‘सारा भारत सब भारतीयों का’। अन्य देशों में संघ के जो स्वयंसेवक काम करते हैं उनकी प्रार्थना ‘विश्वभ धर्म प्रकाशेण, विश्वद शांति प्रवर्ततै| हिंदू संघटनाकार्ये ध्येयनिष्ठा स्थिरातुमा|’ विश्वभ शांति देने वाला विश्वव धर्म हिंदू संगठन से स्थापित हो, ऐसी यह प्रार्थना है। हमारा यही कहना है।

गिरीश कुबेर : बालासाहब देवरस के समय संघ का काम बहुत बढ़ा। लेकिन आज संघ उन्हें मानता नहीं, ऐसी आलोचना होती है।       

मोहन भागवत :  हमारें संबंध ऐसे होते कि भूले नहीं जाते और वे ध्यान में रहे, इस दृष्टी से काम भी नहीं किया जाता। घर में परदादा का स्मरण, श्राद्धकर्म होगा तो ही किया जाता है। संघ में तो वह भी नहीं होता। लेकिन बालासाहब के साथ ही सब सरसंघचालकों ने जो चलन शुरू किया वह चल ही रहा है। संघ में व्यक्ति का बड्डपन नहीं होता। संघ स्थापन करने वाले इस नाते डॉक्टर हेडगेवार, और उनके सूत्ररूप विचारों को ऊँचा स्थान प्राप्त करा देने वाले श्री गुरुजी के ही फोटो केवल संघ में लगाए जाते हैं। स्वयं बालासाहब ने ही बता रखा था कि, मेरा अंतिम संस्कार रेशीमबाग में नहीं करना। रेशीमबाग सरसंघचालकों की स्मशानभूमि नहीं। फोटो दो ही लगाना, यह भी उन्होंने ही बताया था। श्री गुरुजी ने भी बताया था, मेरा स्मारक नहीं बनाना। हम उनके कार्य के प्रति कृतज्ञ रहते है। उनकी शिक्षा के अनुसार बर्ताव करते है। इसके अतिरिक्त एक-एक की जयंति, स्मृतिदिन मनाना संगठन के लिए योग्य नहीं रहता। यह संकेत भी उन्होंने ही दिया है। 

गिरीश कुबेर : आप राजनीतिक भाष्य करना टालते हो। लेकिन, हाल ही में सरसंघचालक के राजनीतिक वक्तव्य से काफी खलबली मची थी। क्या इसमें सातत्य नहीं रह सकता?

मोहन भागवत : इसका श्रेय मै प्रसारमाध्यमों को ही देता हूँ। कुछ समय पूर्व के दो प्रसंगों की ही बात आप कर रहे है न? उनमें से पहला प्रसंग लातूर का है। मैंने वहॉं स्वयंसेवकों के सामने बौद्धिक देते हुए इतना ही कहा था कि, हिंदुत्व के बारे में हम जो कहते है वह अब करीब सब को मान्य हो रहा है। कुछ लोग उसका विरोध करते है। इस संदर्भ में मुझे नीतीश कुमार का ‘प्रधान मंत्री सेक्युलर होना चाहिए’ इस प्रकार का कुछ वक्तव्य धुंधलासा याद था। उसका मैंने उल्लेख किया। मैंने स्पष्ट किया कि, उन्हें सही मायने में ‘प्रधान मंत्री हिंदुत्ववादी नहीं चाहिए’ ऐसा कहना है। लेकिन इस वाक्य का मतलब ऐसा निकाला गया कि मैं नरेन्द्र मोदी को समर्थन दे रहा हूँ। इसके बाद का दूसरा प्रसंग दिल्ली में विदेशी पत्रकारों की पत्रपरिषद का है। वहॉं मुझे पूछा गया कि, क्या गैर कॉंग्रेसी राज्यों का विकास हो सकता है? मैंने कहा, विकास कहीं भी हो सकता हैं। उसके उदाहरण पूछे गए तब मैंने पहले बिहार का नाम लिया। मैं छह वर्ष बिहार में क्षेत्र प्रचारक रह चुका हूँ, इस कारण स्वाभाविक रूप से वह नाम पहले याद आया। इसका समाचार ‘न्यूयार्क टाईम्स’ में सही आया है। लेकिन वहॉं उपस्थित न होते हुइ भी ‘पीटीआय’ने उसका समाचार देते समय मैंने नीतीश कुमार का नाम पहले लिया ऐसा बताया; इस कारण विवादों में न पडने का सातत्य मैं रखता हूँ।

गिरीश कुबेर : लेकिन मोदी के बारे में संघ की निश्चिवत क्या भूमिका है?               

मोहन भागवत : हम इस झमेले में पडते ही नहीं। यह उस पार्टी का प्रश्नि है। उन्हें ही वह देखना है। 

स्वप्नसौरभ कुलश्रेष्ठ : १९४२ के स्वतंत्रता संग्राम में संघ पूरी तरह से नहीं उतरा था। इस बारे में गोळवलकर गुरुजी की आज भी आलोचना होती है। 

मोहन भागवत : एक संघठन के नाते संघ ने किसे समर्थन देना अथवा विरोध करना ऐसा प्रकार उस समय नहीं था और अब अण्णा के आंदोलन में भी नहीं है। स्वाधीनता संग्राम के प्रसिद्ध ‘आष्टी-चिमूर’ के कांड में जिन्हें फॉंसी हुई, और बाद में माफी मिली, कुछ छूटे, कुछ शहीद हुए उनके नाम निकालकर देखे; उनमें आधे से अधिक स्वयंसेवक है। स्वतंत्रता संग्राम में भूमिगत कार्यकर्ताओं की व्यवस्था किसने की? वसंतदादा पाटिल (महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्य मंत्री) सांगली की जेल से भागे तब उन्हें खंदक से कंधे पर उठाकर ले जाने का काम पडसळगीकर ने किया। वे शतरंज के खिलाडी थे और कुश्ती भी लड़ते थें। प्रान्त संघचालक की सूचना के अनुसार पडसळगीकर ने वह काम किया। संघ उसमें नहीं था तो प्रान्त संघचालक ने उन्हें यह करने के लिए कहने का क्या कारण? संघ, संघ के नाम से उस आंदोलन में नहीं था इसके कारण है और अब वह सबको पता भी है।

प्रशांत दीक्षित : ८७ वर्ष के इतिहास में संघ से कभी भी कोई गलतिनहीं हुई? और ऐसा हुआ तो इतने वर्ष बाद भी संघ राजनीतिक पार्टिंयों को ‘बोझ’ क्यों लगता है, ‘कमाई’ क्यों नहीं लगता?

मोहन भागवत : संघ से कभी कोई गलति हुई या नहीं यह देखना होगा। लेकिन कुल मिलाकर संघ ठीक चल रहा है। छोटी-बड़ी कुछ गलतियॉं हुई होगी। मिलकर साथ चलते समय कुछ ठेस लगेगी ही। गलति होने की संभावना अकेले निर्णय लेते समय होती है। संघ में तो अधिक से अधिक स्वयंसेवकों तक जाकर निर्णय लिया जाता है। इस कारण उसमें गलति होने की संभावना अधिक नहीं होती। अब प्रश्नि राजनीतिक बोझ होने का! किन्हें हम राजनीतिक बोझ लगते होगे, (लगते है या नहीं पता नहीं) लेकिन हमारी किसी पर कोई जबरदस्ती कहॉं है? सब संगठन स्वतंत्र और स्वायत्त है। वे उन्हें जो जचेगा वह निर्णय लेंगे। हम संघ के तौर पर स्वावलंबन से चलते है। इस कारण अन्य संगठनों को हमारा बोझ लगने का प्रश्न  ही निर्माण नहीं होता।

गिरीश कुबेर : संघ का जन्म से हिसाब-किताब देखा, तो खर्च के खाते में क्या-क्या मिलेगा? जो स्वयंसेवक भाजपा में जाते हैं वे राजनीति में खोे जाते है, उनका क्या?

मोहन भागवत : कालानुरूप संघ के काम की गति बढ़ाने के लिए परिश्रम का जो प्रमाण चाहिए उतना हम आज भी बढ़ा नहीं सके। यह गति की होड हम अभी भी जीत नहीं पाए है, यही एक बात मुझे खर्च के खाते में दिखती है। स्वयंसेवक राजनीति में जाने के बाद संघ की संस्कार पद्धति से मानसिक स्तर पर कितना संबंध रखते है, वह स्वयंसेवक है इस नाते हम उसके साथ कितना संबंध रखते है और विपरीत स्थिति में अपने ‘स्व’त्त्व पर दृढ रहने की उसकी कितनी तैयारी है, इन तीन बातों पर उसका क्या होगा यह निर्भर होता है। ये तीनों बातें ठीक रही तो वह बिगडता नहीं। ऐसे कई उदाहरण है। लेकिन इनमें की एक भी बात बिगड गई तो वह फिसलने की जगह है। इस कारण वह फिसलता है तो आश्चीर्य नहीं। अच्छा बने रहने की उसकी स्वयं की इच्छा, उसका आधार यह संस्कार है। दूसरे क्षेत्र में होते हुए भी मन से उन संस्कारों से संलग्न रहने की उसकी वृत्ति, और वह दूसरे क्षेत्र में रहने पर भी स्वयंसेवक के स्तर पर उसके साथ संपर्क रखने की हमारी व्यवस्था इन तीन बातों पर सब निर्भर है। लेकिन यह होना ही चाहिए ऐसा नियम नहीं; लेकिन जितने उदाहरण प्रसिद्ध हैं उतने अपवाद है। नियमों की अधिक प्रसिद्धि नहीं होती, अपवादों को अधिक प्रसिद्धि मिलती है। 

गिरीश कुबेर : निश्चि त उदाहरण देना हो तो मोदी और संजय जोशी के नाम लिए जा सकते हैं। दोनों ही स्वयंसेवक हैं। संघ भाजपा का ‘एच। आर। मॅनेजर’ है, ऐसा माने तो उन आदमियों का जो चाल-चलन बनता है उस पर संघ का कोई नियंत्रण है? 

मोहन भागवत : संघ भाजपा का ‘एच। आर। मॅनेजर’ नहीं। हर एक को अपनी  दुकानदारी, व्यवसाय स्वयं चलाना है। संघ इन सब से अलग और वे सब स्वतंत्र, स्वायत्त संस्थाएँ है। आधार केवल उनकी समझदारी, संस्कारों से जुडाव और उनके साथ रखा संपर्क इन तीन बातों का है। इन तीनों में से एक बात बिगडती है तो कष्ट होता है। दो बिगडती है तो संतुलन गडबडाता है, और तीनों बिगडती है तो सब ही समाप्त हो जाता है। मोदी, जोशी और उनके बीच मध्यस्थता करने वाले सब स्वयंसेवक ही है। हमारे लिए वे दोनों भी स्वयंसेवक है। इस संदर्भ में मैंने कुछ बोलना उचित नहीं। 

निशांत सरवणकर : परिवार में के कुछ लोग अतिरेकी भूमिका लेते है। इनमें से ही ‘हिंदू आतंकी’ पैदा होते है?

मोहन भागवत : कुछ बातें हिंदुत्व के विरोध में ही जाती है। उनकी जोड़ियॉं बन ही नहीं सकती। आतंकवादी को ‘हिंदू’ विशेषण लगाना संभ्रम मानना चाहिए। कारण यह जोड़ी बन ही नहीं सकती। ‘हिंदुत्व’में ही बताया है कि, मध्यम मार्ग सदैव उचित होता है। एक ही ओर झुकना, विनाश की ओर जाना है। हिंदुत्व सदैव मध्यममार्गी है। कोई भी अतिरेकी भूमिका हिंदुत्व में वर्ज्य है। लेकिन अंत में मनुष्य, मनुष्य ही है। किसी को जो चल रहा है वह पसंद नहीं आता और वह कुछ भी कर बैठता है; उसे आतंकी कह सकते है। लेकिन ‘हिंदू आतंकी’ नहीं कहा जा सकता।

स्वानंद ओक : १९९० के दशक में आय। टी। क्रांति हुई। इस क्रांति के कारण संपूर्ण समाज में उथलपुथल हुई। पहले २०० वर्षों में जितने बदलाव नहीं हुए उतने इस क्रांति ने बाद के दस वर्षों में किए। परिवार, विवाह, शिक्षा ऐसी सब संस्थाओं का अध:पतन हुआ। इस सब परिस्थिति को संघ का कैसा प्रतिसाद है?

मोहन भागवत : ‘आय। टी।’ यह वस्तुस्थिति है यह ध्यान में लेकर समाज के लिए हितकारक संस्कार टिके रहें इस प्रकार जीवन की पुनर्रचना करनी होगी। ‘आय। टी।’ उपकारक है, तो उसे अपनाना होगा। उसे साथ रखना होगा। उसे साथ रखते समय, उसके साथ बह जाने से काम नहीं बनेगा। ऐसी स्थिती में जीवन कैसे जीयें इसके लिए परिवार का प्रबोधन, नव दंपत्तियों का प्रशिक्षण, मानवता, राष्ट्रीय दृष्टि से आवश्यक मूल्यों का प्रशिक्षण देने का कार्य संघ ने शुरू किया है। सब प्रान्तों में यह काम चल रहा है। यह आंदोलन नहीं होने के कारण उसकी जोर-शोर से चर्चा नहीं होती!

वैदेही ठकार : आप संघ में महिलाओं को प्रवेश देगे?

मोहन भागवत : हमारी एक व्यवस्था है। १९३८ में राष्ट्र सेविका समिति ने वह काम अपनी ओर लिया। राष्ट्र सेविका समिति की आद्य सरसंचालिका मौसी जी केलकर ने डॉक्टर हेडगेवार जी से कहा, आप सब हिंदू समाज का संगठन करना चाहते है। लेकिन ५० प्रतिशत समाज मतलब महिलाए तो आपके साथ है ही नहीं। इस पर डॉक्टर हेडगेवार जी ने कहा, आज परिस्थिति ऐसी नहीं कि पुरुष महिलाओं के काम करें, और काम करने के लिए महिलाए बाहर आती नहीं। कोई महिला यह काम करती हो तो हम उसे पूरी मदद करेंगे। मौसी जी वह काम करने के लिए तैयार हुई। राष्ट्र सेविका समिति की आज ७००० शाखाएँ देशभर में है। ४३ प्रचारिका (समिति की पूर्णकालीन कार्यकर्ता) है। उस समय ऐसा तय हुआ कि महिलाओं का काम समिति करे और पुरुषों का काम संघ करे। दोनों समांतर काम करे, एक-दूसरे का मिलन न हो। एक-दूसरे को मदद करे। आज तक वही चल रहा है। महिलाओं को संगठित करने के काम के लिए उन्हें समिति में जाना होगा। लेकिन अन्य कामों में महिला और पुरुष एकत्र काम करते हैं। १९३८ में हुआ यह अनुबंध हम तोडेंगे नहीं। अन्य देशों में जहॉं हिंदू स्वयंसेवक संघ जैसे नामों से काम चलता है, वहॉं शाखा दोनों की भी होती है। 

वैदेही ठकार : परंतु समांतर काम क्यों? एकत्र क्यों नहीं? 

मोहन भागवत : उस समय वैसा अनुबंध हुआ है और हम उसका सम्मान करते है। उनकी तैयारी होने के बाद हम एकत्रित काम कर सकते है।     

मधु कांबळे : भविष्य में महिला या दलित सरसंघचालक हो सकेगा? 

मोहन भागवत : सरसंघचालक होने के लिए यह शर्त होती ही नहीं। आज महिलाएँ संघ में नहीं होने के कारण उसका अभी विचार ही नहीं होना चाहिए। राष्ट्र सेविका समिति की सरसंचालिका होती है। हमारी बैठकों के लिए उन्हें निमंत्रण होता है। सरसंघचालक के समान ही उनका वहॉं सम्मान किया जाता है। दलित सरसंघचालक हो सकता है। उसके लिए कोई बंधन नहीं। काम करे। काम करते करते अनुभव बढ़ाए और सरसंघचालक बने। हमारा करीब २५ लोगों का अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल है। उसमें कौन किस जाति का है यह हमें पता नहीं होता। सबसे अधिक लोगों को जानने वाला मैं हूँ। लेकिन मुझे भी वह निश्चिहत पता नहीं। हमारे प्रान्तों के संघचालक पदों पर तथाकथित दलित वर्ग में के स्वयंसेवक आने लगे हैं। लेकिन यह हम स्वाभाविक रूप में करते है। जबरदस्ती से किसी बात का स्मरण न रखोे, ऐसा बताया तो उसका ही स्मरण रहता है। क्या स्मरण रखे यह हम बताते है। लेकिन यह काम धीरे-धीरे होता है। 



हमारा भी दिनक्रम होता है।

सरसंघचालक ने अपना जीवन ही राष्ट्रकार्य को समर्पित किया होता है। उनके मस्तिष्क में दूसरा विषय नहीं होता। उनका दिन सुबह जल्दी शुरू होता है। अर्थात् प्रत्येक सरसंघचालक की दिनचर्या भिन्न होती है। मैं छह घंटे सोता हूँ। दोपहर एखाद घंटा विश्रांति होती है। दिनभर मिलना-जुलना, पत्रव्यवहार, बैठकें और अन्य काम ऐसा दिनक्रम होता है।  

नाटक में काम किया है।

मनुष्य को कला से लगाव होता ही है। गुरुजी अच्छी तरह से बॉंसुरी बजाते थे। डॉक्टर हेडगेवार भी संगीत के कार्यक्रमों को जाते थे। लेकिन अच्छा गाने वाला भी संघ का स्वयंसेवक बने, इस दृष्टि से वे वहॉं जाते थे। संघ के स्वयंसेवक कला क्षेत्र में होगे तो उनके कार्यक्रमों में भी हम जायेगे ही। मेरे लिए नागपुर के लोगों ने नाटक का विशेष शो रखा था। मैं गया। कॉलेज में पढ़ते समय मैं नाटकों में काम करता था। मुझे उसमें रूची है। लेकिन अब प्राथमिकता संघ के काम को है। यह प्राथमिकता ध्यान में रखते हुए अन्य विषयों का भी अभ्यास करे इसके लिए हम प्रोत्साहन देते है। मैंने संस्कृत की कोविद तक की परीक्षाए दी हैं।     

सिनेमा के मध्यंतर में समोसा भी होता है।

संघ के बिहार क्षेत्र संघचालक, थिएटर मालिक असोसिएशन के अध्यक्ष थे। संघ के केन्द्रीय अधिकारी आते, तो वे उन्हें अपने थिएटर ले जाते। बाल्कनी में बिठाते। मध्यंतर में समोसा, थम्स-अप, पेप्सी-कोला देते (उस समय स्वदेशी जागरण मंच अस्तित्व में नहीं आया था) एक बार मदनदास जी देवी और अन्य लोगों के साथ मुंबई में ‘हे राम’ सिनेमा देखा। टॉकिज में देखा हुआ वह आखरी सिनेमा। अनेक उपन्यास अच्छे लगते है। लेखक वि। स। खांडेकर विशेष पसंद है। बचपन से पढ़ने का शौक होने के कारण अंग्रेजी और मराठी साहित्य बहुत पढ़ा है। ‘ऍटलास श्रग्ड्’ उपन्यास पसंद आया। फिक्शन पढ़ता हूँ। जो कुछ समय मिलता है उसमें व्यासंग रखने का प्रयास करता हूँ।   

संघ का विनोद से बैर नहीं

गंभीर चेहरे बनाकर बैठने से संघ कार्य नहीं होगा, ऐसा डॉक्टर हरदम कहते थे। ‘जहॉं बालों का संघ वहॉं बाजे मृदंग, जहॉं बूढों का संघ वहॉं खर्चों से तंग’ ऐसा भी वे कहते थे। तनावग्रस्त होकर काम नहीं होता यह हम जानते है। संघ की बैठक हास्य-विनोद के बिना होती ही नहीं। एक प्रसंग बताता हूँ। बालासाहब जी की तबीयत ठीक नहीं होने के कारण उनके बौद्धिक का एक व्हिडीओ बनाकर दिखाए, ऐसा विचार एक बैठक में रखा गया। यह बात बालासाहब को जची नहीं। वे बोले, मेरे जाने के बाद, नए सरसंघचालक को वैसा करना हो तो करने दे। बालासाहब के इन निर्वाणसूचक शब्दों ने स्वयंसेवकों के हृदय को आहत किया। वे गंभीर हो गए। तभी मोरोपंत जी पिंगले उठ खड़े हुए और बोले, आपके जाने के बाद भी संघ को चलाते रहना है? उनके प्रश्ने का आशय था, जितना हुआ क्या उतना काफी नहीं है, थके नहीं? उन्होंने प्रश्नै खास नागपुर की शैली में पूछने से हँसी के फव्वारे फूट पड़े और बैठक में निर्माण हुआ तनाव मिट गया। ऐसे प्रसंग हरदम घटित होते है।   

‘रिमोट कंट्रोल’ की क्या आवश्यकता?

संघ में रिमोट कंट्रोल नहीं होता। अखिल भारतीय प्रचार विभाग प्रमुख मनमोहन वैद्य जी यहॉं बैठे है। उन्हें भी मैं कंट्रोल नहीं कर सकता। कंट्रोल करने के लिए हमारे पास क्या आधार है? प्रेम, दोस्ती, संघ-संस्कार के बारे में की कृतज्ञता केवल इन्ही का आधार होता है। अनेक बार कुछ बताना भी नहीं पडता। अपने आप हो जाता है। जबरदस्ती किसी भी बात की नहीं। शाखा में आने के लिए भी जबरदस्ती नहीं की जाती। संघ में कंट्रोल की भाषा ही गलत है।  

तो आप सरसंघचालक नहीं।

संघ का ‘भाजपाकरण’ होना असंभव है। कारण, संघ को मैं या कार्यकारी मंडल नहीं चलाता। संघ कैसे चले इसके बारे में हर स्वयंसेवक की जो कल्पना होती है उसके अनुसार ही संघ चलता है। सरसंघचालक होते हुए भी मैं संघ को विपरीत दिशा नहीं दे सकता। एक प्रसंग बताता हूँ। डॉक्टर हेडगेवार संघ शिक्षा वर्ग में कुछ स्वयंसेवकों के साथ चर्चा कर रहे थे। उन्होंने एक प्रश्नस किया। ऐसी कल्पना करो, मैं डॉक्टर हेडगेवार, कल आपसे कहता हूँ कि, ‘हिंदुस्थान हिंदू राष्ट्र नहीं!’ स्वयंसेवकों ने कहा, आप ऐसा कहोगे ही नहीं। डॉक्टर जी ने कहा कि लेकिन कल्पना करो कि मैंने ऐसा कहा तो क्या करोगे? स्वयंसेवकों ने कहा, आपने ऐसा कहा तो हम कहेंगे, ‘डॉक्टर हेडगेवार हमारे सरसंघचालक नहीं।’ स्वयंसेवकों का यह मनोभाव संघ को चलाता है। इस कारण संघ का भटकना संभव ही नहीं।       

‘लिव्ह इन रिलेशन’, ‘ समलिंगी संबंध’बदलते समय में समाज में ‘लिव्ह इन रिलेशन’, ‘समलिंगी संबंध’ आदि प्रवाह सामने आ रहे है। समाज का सर्वांगीण विचार करने वाला संगठन, इस नाते विचार करते समय, समाज मतलब केवल एक समूह नहीं, यह ध्यान में लेना चाहिए। समाज का अपना स्वभाव भी होता है। शेरों के समूह में का एक शेर, बकरी के साथ घास खाने लगा और हाथीयों के झुंड में का एक हाथी फुटबॉल खेलने लगा तो क्या इसे आप नया प्रवाह कहेंगे? शेर जंगल में ही शोभा देता है। फुटबॉल खेलना हाथी की विशेषता नहीं हो सकती। कोई नई बात आती है तो तुरंत उसकी दखल लेने की आवश्यकता नहीं। १०० वर्ष बाद उसकी स्थिति क्या होगी इसका भी विचार करना चाहिए। इन बातों का समाज के स्वास्थ की दृष्टि से विचार कर हम विरोध करते है।        

अण्णा और हम

अण्णा का अपना स्थान है, उनका भिन्न व्यक्तित्व है। हमारें प्रस्ताव में हमने सब स्वयंसेवकों से कहा था कि, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आप भाग ले। परंतु आंदोलन की कल्पना, उसकी रचना अण्णा की ही है। उसका श्रेय हम क्यों लें? क्या स्वयंसेवक नागरिक के रूप में उसमें शामिल नहीं हो सकते? बिहार आंदोलन के समय भी ऐसा ही शोर मचाया गया था। बालासाहब देवरस ने उस समय कहा था, क्या हमारे स्वयंसेवक नागरिक नहीं? वे जिनके साथ रहते हैं उनके सुख-दु:ख में उनका साथ नही देंगे? बाढ़ आने के बाद बिहार का संपर्क टूटता है, कई दिन बिजली गुल रहती है, स्वतंत्रता के तीस वर्ष बाद भी ऐसी परिस्थिति होने के कारण समाज में चिढ़ है। उसके विरुद्ध आंदोलन हुआ तो स्वयंसेवक उसमें भाग नहीं लेगे? घरों में बैठे रहेगे? इसमें संघ का कोई गुप्त अजेंडा, छिपा समर्थन ऐसा कुछ नहीं।