अक्का ! तुम्हारी बहुत याद आती है ।
-कुप्प. सी. सुदर्शन
पूजनीय सुदर्शनजी के जीवन के ७५ वर्ष पूर्ण होने पर अपनी पूज्य माताजी का अपने जीवन के गठन में स्मरण करते हुए बीते जीवन के घटनाक्रमों का स्मरण करते हुए स्वात: सुखाय एक आलेख मां के संस्मरण में लिखा था जो कभी छपने नहीं दिया। पर इससे मां के प्रति उनकी गहरी भावनात्मक स्मृति के साथ उनकी स्वयं की जीवन यात्रा की एक संक्षिप्त झांकी इस आलेख में उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है।...
हॉं, हम भाई-बहिन सब तुमको ‘अक्का’ कहकर ही पुकारते थे। तीन भाई-बहिनों में तुम ही सबसे बड़ी थी और इसलिए मेरी ननिहाल में मेरे माता और मौसी तुमको बड़ी बहिन के नाते ‘अक्का’ कहा करते थे और बचपन में वहां रहते हुए मैं और बाद में मेरे भाई-बहिन भी तुम्हें ‘अक्का’ ही कहने लगे। एक बार तुमने कहा भी था कि ‘अम्मा’ की तुलना में तुमको ‘अक्का’ नाम ही अधिक पसन्द है। वैसे ही अण्णा बड़े भाई को कहते हैं किंतु हम सब पिताजी को अण्णा कहकर ही पुकारा करते थे। अण्णा वनविभाग की नौकरी में होने के कारण तुम दोनों की छत्रछाया में एक साथ रहने का अवसर कम ही मिला। प्राय: विद्यालयों में व अवकाश के समय ही कुछ काल दोनों के साथ रहने का सुख प्राप्त होता था। अत: हम तीनों भाइयों एवं एक बहिन को पाल-पोस कर बड़ा करने, खिलाने-पिलाने और इन सबसे अधिक हमें उत्तम संस्कार देकर समाज के एक सम्माननीय घटक के नाते गढ़ने का काम तो तुम्हारे ही कंधों पर ही आन पड़ा था। जिसे तुमने बखूबी निभाया। इसलिए तो एक बार मामा ने मेरे सबसे छोटे-भाई के सामने कहा था- ‘कमाल है अक्का की! बहुत पढ़ी-लिखी न होने पर भी तुम सबको उन्होंने कितने उत्तम ढंग से शिक्षित और संस्कारित किया!’’
हॉं अक्का! तुम बहुत पढ़ लिख नहीं पाई। पाती भी कैसे? मेरे नानाजी तो तुम सब छोटे थे तभी परमधाम सिधार गये थे और नानीजी ने प्राथमिक विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी कर तुम सबको पाल-पोस कर बड़ा कर दिया। स्वाभाविक था कि तुम सबको बहुत अधिक पढ़ा नहीं सकती थीं और उन दिनों लड़कियों के लिए अधिक पढ़ना आवश्यक भी नहीं माना जाता था। विवाह भी कम उमर में कर दिये जाते हैं। तुम भी तो ११ वर्ष की उमर में ही गृहिणी बन कर आयी थीं उन दिनों पिताजी मध्य प्रदेश के चंद्रपुर जिले में सिरोंचा में कार्यरत थे जहॉं आंध्र से संलग्नता के कारण मराठी और तेलगू बोली जाती थी। तुमने भी दोनों भाषाओं का कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर लिया था। पर बाद के लगभग दो दशकों तक पिताजी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही रहे और इसलिए तुमने हिंदी भी सीख ली। और तभी आज के छत्तीसगढ़ से महासमुन्द में अण्णा की नियुक्ति के समय तुमने मुझे रायपुर के मिशन अस्पताल में जन्म दिया! मेरे जन्म की सूचना अण्णा को तार द्वारा दी गई किंतु जब तार उन्हें मिला तो रायपुर आने की रेलगाड़ी छुट चूकी थी। अत: अण्णा साइकिल पर ही निकले और इस समय विपरीत दिशा में चल रही धूल भरी आंधी को चीरते हुए लगभग पचास किलोमीटर का रास्ता तय कर रायपुर पहुँचे। तुम्हारी गोद में मुझे देखकर अपना सारा श्रम भूल गये होंगे और प्रसन्न भी हुए होंगे।
प्रसन्न क्यों न होते? तुमने ही तो बताया था कि निरंजन नाम का मेरा एक बड़ा भाई भी हुआ था किंतु अल्पायुषी सिद्ध हुआ। उसके बाद जुडवॉं बच्चे भी हुए किंतु वे भी नहीं रहे इसलिए मुझे देखकर तुम सबने मेरे दीर्घायुषी होने की कामना की होगी। सो आज की पचहत्तर वर्ष में चल रहा हूँ, तुम दोनों ने भी जीवन के नौ दशक देखे। हम चार भाई-बहिनों में मँझला भाई सुरेश ही, जो मेरे प्रचारक बनने और छोटे भाई रमेश के अमेरिका चले जाने के पश्चामत् तुम दोनों को सम्भाला करता था, नासिका के अंदर भी एक फुंसी पर शल्य क्रिया हो जाने के बाद कुछ गड़बड़ होकर अपने पीछे अपनी पत्नी और एक पुत्र-पुत्री को छोड़कर काल के गाल में समा गया। अत्यन्त मिलनसार, विनोद प्रिय एवं कुशल अध्यापक के नाते उसकी उदयपुर विश्व विद्यालय में ख्याति थी और विश्वम हिन्दु परिषद् के कार्य को उसने अपना लिया था।
मध्यप्रदेश के आज के हटा जिले के फतहपुर नामक ग्राम में मैंने प्राथमिक विद्यालय की दो कक्षाएं पढ़ी और बाद में पॉंचवीं तक की तीन कक्षाओं का अध्ययन दमोह में हुआ जो आज जिला केन्द्र है किंतु तब तहसील केन्द्र था। जब पॉंचवी कक्षा में था तभी ‘रेंजक्वार्टर’ के निकट डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के प्रांगण में रायपुर से आये दामोदर गिरिभट्ट नामक प्रचारक के द्वारा शाखा प्रारंभ हुई थी। रेंज क्वार्टर के मैदान में हम और आसपास के बच्चे खेला करते थे। बीच-बीच में सड़क के उस पार लगने वाली शाखा में होने वाले खेलों का आनंद लिया करते थे। एक दिन दत्तू नामक मेरे एक सहपाठी ने, जो पास के अस्पताल में कार्यरत कम्पाउंडर का बेटा था, मुझसे कहा कि शाखा चलो, वहॉं लाठी चलाना सिखाते हैं। वह मुझसे एक दिन पूर्व ही शाखा गया था। मैंने तब तुमसे आकर पूछा था कि ‘अक्का! मैं लाठी सीखने जाऊँ?’ तो तुमने सानन्द अनुमति प्रदान की थी। तब किसी को क्या कल्पना हो सकती थी कि लाठी सीखते-सीखते मैं ‘बड़ी मॉं’ की सेवा हेतु तुम सबकी आशाओं पर तुषारपात करता हुआ संघ का प्रचारक बन जाऊँगा? पता नहीं, पता होता तो तुम मुझे जाने भी देतीं या नहीं क्योंकि निम्न मध्यवित्त परिवारों की माताओं के समान तुम्हारी भी कामना यही थी कि मैं पढ़ँ-लिखूँ, अच्छी सरकारी नौकरी कर घर गृहस्थी बसाऊँ।
हम सब भाई बहिनों पर जो उत्तम संस्कार हुए उसका कारण ही वह था कि तुम पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन और पर्व-त्यौहारों को परम्परागत रीति से मनाने का बड़ा आग्रह रखती थीं जिसका हम सबके बालमनों पर विशेष प्रभाव पड़ा करता था। मुझे याद है तुम और बुआजी, जो बाल-विधवा हो जाने के कारण प्राय: साथ ही रहती थीं, रामायण, महाभारत, पुराण आदि की कहानियॉं सुनाया करती थी। सारे व्रत-उपवास तुम दोनों नियमपूर्वक रखा करती थीं और बड़ी एकादशी, जन्माष्टमी और शिवरात्रि के समय मैं भी व्रत रख लेता था और रात की राह इस आशा से देखा करता था कि फलाहार के समय नये-नये व्यंजन खाने को मिलेंगे। उपवास न रखनेवालों को भी व्यंजन खाने तो मिल जाते थे किंतु छोटे भाइयों के सामने ‘मैंने उपवास रखा है’ यह शेखी बघारने का जब मौका मिलता था तब बड़ी आत्मसंतुष्टि होती थी।
हम सब भाई जब उधम मचाते हुए कुछ गलत कार्य कर जाते थे तब तुम हमको मारती तो नहीं थी किंतु तुम्हारे पास एक अस्त्र था जिससे हम बड़े घबराते थे। वह अस्त्र था ‘उन कईले वार्च्छोल्लल्ले’ (तुमसे नहीं बोलूंगी)। मुझ पर ऐसा अवसर आने पर मेरे अन्य भाइयों से तो तुम प्रेम से बोलती थीं किंतु मुझसे कुछ कहना हो तो तृतीय वचन में बोला करती थीं- ‘‘उससे कह दो नहा ले; उससे कह दो खा ले; उससे कह दो कपड़े बदल ले’’ आदि। तुम्हारी ओर से इस प्रकार का पराया व्यवहार मन को इतना चुभता था कि एकाध दिन में ही हम लोग ठीक रास्ते पर आ जाते थे और अपने किये पर तुमसे क्षमा मॉंग लेते थे। जब पिताजी साथ में होते थे तो तुम्हारा अस्त्र होता था- ‘ठहरो, आने दो अण्णा को, उनसे तुम्हारी शिकायत करूँगी।’’ और अण्णा की हम सब धाक खाते थे। वे भी क्वचित् ही हाथ उठाते थे किंतु उनकी बुलन्द आवाज ही हम लोगों को डराने के लिए पर्याप्त होती थी।
मुझे याद आता है कि जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ता था तब मेरे यज्ञोपवीत संस्कार के लिए हम लोग श्रीरंगपट्नम् गये थे और जनेऊ धारण करने के पश्चाकत् बेंगलुरू मामा के घर आये। घर के सामने एक छोटा-सा चम्पा का पेड़ था जिस पर चढ़कर चम्पा के फूल तोड़ा करता था। प्राय: ही भाई-बहिन फूल उठाने के लिए साथ हुआ करते थे। किंतु एक दिन अल्पाहार लेकर मैं जल्दी आ गया और वृक्ष पर चढ़कर फूल तोड़ने लगा। एक फूल फुनगी पर था। उसे तोड़ने के लिए जब डाल पर जोर डाला तो डाल टूट गई और मैं धड़ाम से नीचे सीमेंट के फर्श पर आ गिरा। तुम उस समय घर के बाजू में कपड़े धो रही थी। आवाज सुनकर जब तुमने पलटकर देखा तो मैं निश्चेिष्ट फर्श पर पड़ा हुआ था। तुम चीख कर दौड़ी, तुम्हारी चीख सुनकर अण्णा, मामा सब दौड़ें। मैं बेहोश होगया था। बायें हाथ की हड्डी टूट गई थी। तत्काल मामा ने दो लकड़ी के पटिये लगाकर हाथ पर पट्टी बॉंध दी और विक्टोरिया अस्पताल ले गये। डॉक्टरों ने हड्डी बैठाकर प्लास्टर चढ़ा दिया और वार्ड में जाकर सुला दिया। सायंकाल जब मुझे होश आया तो देखा तुम सब चारों ओर खड़े हो। मैं आश्चरर्य कर रहा था कि ‘यहॉं कैसे आ गया? इक्कीस दिन वहॉं रहकर उकता गया था और रट गला रहा था कि घर ले चलो। बाद में घर आकर बेंगलुरू से मण्डला सबके साथ आया जहॉं के जगन्नाथ विद्यालय में मेरी छटवीं से लेकर दसवीं तक शिक्षा हुई थी। खोपड़ी में एक छोटी दरार भी आई थी किंतु उसके लिए केवल सावधानी बरतने को कहा गया था।
अण्णा अपना कार्य अत्यन्त प्रामाणिकता से किया करते थे जिसके कारण उनकी ‘रेंज ऑफीसर’ से ‘सब डिवीजनल ऑफीसर’ के रूप में पदोन्नति हो गई और स्थानांतर चंद्रपुर जिले के आलापल्ली सब डिवीजन में हुआ। पुन: ग्यारहवीं में कक्षा की पढ़ाई के लिए हम लोगों को तुम्हारे साथ चंद्रपुर में रहना पड़ा जहॉं परीक्षा में मैं पूरे मध्यप्रदेश में चतुर्थ स्थान पर आया था। यह सब तुम्हारी कृपा, तुम्हारा स्नेह, तुम्हारे प्रोत्साहन और तुम्हारे आशीर्वाद का फल था। उसके बाद इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के लिए मैं जबलपुर के महाकौशल महाविद्यालय के छात्रावास में आ गया और छात्रावास में दो वर्ष रहा। परन्तु वहॉं के निकृष्ट भोजन और उबले हुए कद्दू की सब्जी खाते-खाते डेढ़ महिने में ही पीलिया के रोग से ग्रस्त हो गया। प्राध्यापकों की सलाह पर मैं चंद्रपुर आया तो मेरी पीली आँखें और पीला शरीर देखकर तुम कितनी घबरा गई थीं और तुरन्त पिताजी को सूचित किया। वे तुरन्त आये और वैद्यराज के पास मेरी चिकित्सा शुरू हुई। तीन सप्ताह बाद जब वापस जबलपुर चला तो तुमने मेरे साथ वह सारा साज सामान दे दिया था जिसके द्वारा मैं स्वयं दही जमाकर छाछ बना सकूँ और उसके साथ भोजन कर सकूँ।
दूसरी चिन्ता का विषय तुम्हारे लिए तब बना जब मैं दि. ११ दिसम्बर १९४९ को संघ पर प्रतिबन्ध हटवाने के लिए, जिसे महात्मा गांधी की हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर लगाया गया था, सत्याग्रह करके जेल चला गया। पिताजी को पता लगने पर वे मुझसे मिलने जेल पर आये। सरकार का प्रयास था कि सत्याग्रही माफी मॉंग ले और सत्याग्रह की कमर टूट जाये। अत: पालकों को इसी शर्त पर मिलने दिया जाता था कि वे अपने पाल्यों से माफी मॉंगने के लिए कहेंगे। तदनुसार पिताजी ने भी मुझसे कहा किंतु पिताजी अपने साथ ऊनी ओवर कोट लेकर आये थे। यह देखकर मैं समझ गया कि पिताजी की अपेक्षा नहीं है कि मैं माफी मॉंगूगा और इसलिए ओवर कोट लेकर आये थे कि ठंड के दिनों में मुझे जेल में कष्ट न हो। बाद में विद्यार्थियों की परीक्षाओं में बाधा न पड़े इसलिए विद्यार्थी छोड़ दिये गये। परीक्षा में मुझे अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ देखकर तुम व पिताजी को समाधान हुआ और मैं आभियांत्रिकी का शिक्षण लेने लगा।
मेरे छोटे भाइयों की भी महाविद्यालयीन शिक्षा प्रारंभ होने के कारण तुम जबलपुर आ गईं और किराये के मकान में हम लोग रहने लगे। खाने-पीने को तो व्यवस्थित मिलता रहा किंतु संघकार्य की धुन में मैंने कभी समय पर नहीं खाया। मैं रात को १२-१२ बजे लौटता तो तुम मेरे लिए भोजन गरम करके परोसतीं। आज सोचता हूँ कि तब मैंने तुम्हें कितना कष्ट दिया। तुम कितना समझाती कि- ‘बेटा, कम से कम भोजन तो समय पर कर लिया करो फिर जहॉं जाना हो जाओ।’ पर मैंने तुम्हारी नेक सलाह नहीं मानी। खाते-पीते और सोने-जागने की अनियमितता के कारण मैं जीर्ण-आँव का रोगी बन गया। परिणामत: वैद्यराज की औषधी के साथ-साथ छ: मास तक केवल छाछ पर ही रहना पड़ा। आज वही परामर्श मैं सारे प्रचारकों को देता हूँ और कहता हूँ कि दीर्घकाल तक निरोग रहकर संघ कार्य करना हो तो नाश्ता, भोजन तथा सोने-जागने का समय निश्चितत करो। और जब ऐसा कहता हूँ तो अक्का! तुम्हारी भी याद आती है।
दूरसंचार में बी.ई. (आनर्स) की उपाधि प्राप्त करने के पश्चाहत् तीन मास का प्रायोगिक प्रशिक्षण लेने मैं दिल्ली में रहा और वहॉं से वापस आकर प्रचारक के नाते जाने की घोषणा कर दी। तुम सबने मुझे परावृत्त करने का प्रयत्न किया किंतु मैं अडिग रहा। आखिर तुम्हारा ही तो दूध पिया था। पर यह तुम्हारे लिए और विशेषकर पिताजी के लिए बहुत बड़ा धक्का था। अण्णा ने आशा बॉंधी थी कि मैं कमाने-धमाने लगूँगा। तो मेरे भाई-बहिनों के शिक्षण पर और दो स्थानों पर परिवारों की व्यवस्था रखने के कारण उन पर जो विशेष बोझ पड़ रहा था उसमें हाथ बँटाऊँगा। पर उनकी इस आशा पर तुषारपात हो गया। तुम भी दु:खी थी किंतु जबलपुर विभाग के प्रचारक श्री ओम्प्रकाशजी कुंद्रा ने कुशलता के साथ समझा-बुझाकर तुम्हें इस बात के लिए तैयार कर लिया कि स्टेशन पर आकर अपने स्नेहाशीर्वादसह मुझे बिदाई दो। शायद उन्होंने तुमसे कहा होगा कि २-३ वर्ष के बाद वापस आ जायेगा। अत: तुम्हारी आशा बँधी रही।
दो वर्ष के बाद किसी कार्यक्रम के लिए जबलपुर आया था तब तुमने व अण्णा ने कहा कि-‘‘ दो वर्ष की बात हुई थी सो पूरे हो गये। अब वापस आकर घर बार सम्हालो।’ मेरा कहना था कि ‘मैंने अपने मुँह से कभी दो वर्ष की बात नहीं कही थी। प्रारंभ से ही मेरा विचार आजीवन प्रचारक बनने का रहा है। दूसरे दिन चलते समय जब तुम्हारे और अण्णा के चरण स्पर्श करने गया तब अण्णा ने बड़े करुण स्वर में कहा- ‘जिद मत करो सुदर्शन!’ किन्तु मैं चला आया पर सारे रास्ते पिताजी का करुण स्वर कानों में गूँजता रहा। बाद में तो तुम दोनों ने समझ लिया कि मैं निश्चयय का पक्का हूँ अत: आगे कभी वापस आने की बात नहीं कही बल्कि आगे चलकर एक बार तो अण्णा ने यह भी पूछा कि तुम सरसंघचालक कब बनोगे? मैं तो उस समय प्रांत प्रचारक था। यह कल्पना भी मन में नहीं कर सकता था कि ऐसे अत्यन्त उत्तरदायित्व के पद पर कभी मुझे आसीन होना पड़ेगा। और इसलिए यह कहकर छुटकारा पा लिया कि उसके लिए जो योग्यता लगती है, वह मुझमें नहीं है। आज भी ऐसा ही लगता है पर साथ ही हमारे प्रान्त प्रचारक रहे श्री रामशंकर अग्निहोत्री का वह वाक्य याद आता है कि- ‘चिन्ता मत करो। संघ तुम्हारे हाथ से सब काम करवा लेगा।’
नब्बे वर्ष की आयु में पिताजी चले गये। प्रकृति का क्रम मानकर तुमने यह वियोग सहन कर लिया था। किंतु तुम पर सबसे बड़ा आघात तब लगा था जब मँझला भाई सुरेश शल्यक्रिया के बाद दिल्ली लाया गया, अनपेक्षित रूप से बिछुड़ गया। अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान से आकर जब मैंने तुम्हें यह समाचार सुनाया तो उसकी पत्नी तो गश खाकर गिर पड़ी। पर तुम खड़ी-खड़ी आँखों से आँसू बहाती रहीं। शायद तुम भी गिर पड़ती पर मैंने तुम्हें सहारा दिया। आज भी तुम्हारी वह अश्रुपूरित छवि मन को कचोटती है। यह मेरा सौभाग्य रहा कि पिताजी और तुम्हारी अंतिम बीमारी के दिनों में कुछ दिनों तक सेवा कर सका। प्रिय सुरेश के देहावसान के पश्चाित् तुम दोनों बहिन वत्सला के घर ही थे। वहां से असम के प्रवास पर जाने के लिए तुमसे अनुमति लेकर निकला किंतु गुवाहाटी पहुँचते ही खबर लगी कि हम सब को छोड़कर तुम दिव्यलोक को प्रस्थान कर गई। मैं तुरन्त वापस आया और चिता को अग्नि दी। यह भी कैसा संयोग था कि जिस रायपुर में तुमने मुझे इस धरती पर उतारा, उसी रायपुर में मैंने तुम्हें अंतिम बिदायी दी। अक्का! आज मैं जो कुछ हूँ तुम्हारे कारण हूँ। तुमने मुझे जो संस्कार दिये उन्होंने मुझे वह शक्ति, निश्चीय और आत्मविश्वा!स प्रदान किया, जिसके बल पर आज इस गुरुत्तर दायित्व को सम्भाल रहा हूँ। पर अक्का! पग-पग तुम्हारी बहुत याद आती है!